अँधेरी रात की स्याही में ,
डुबायी हमने अपनी कलम ,
और आंसुओं के पन्ने पर,
लिखती रही अपने ज़ख्म .
जो चोटें मेरे जिगर ने खायीं ,
दुनिया ने दिये हैं कम .
अपनों ने ही दिया तोहफे में ,
दर्द,कसक और सितम .
जितने जुल्म हुए, कहर ढाया,
उन्हें चुपचाप सहते रहे हम .
खून से रंगा हुआ तार तार ये मन ,
हँसते थे होंठ मगर ,,
आंखें रहीं नम .
ख़ाक में मिले सारे दिली-अरमान ,
जिंदा रहा फ़िर भी ये जिस्म .
इस रात की काली स्याही में ,
स्याह हुए हम......स्याह हुए हम.................!!!!
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